डड़कटवा के विरासत जब सावन आवेला त रोपनी आ खेती जमक जाले , लोग भोरही फरसा (फावड़ा) लेके खेत के हजामत बनावे चल दे ला , ओहमें कुछ लोग स्वभाव से नीच आ हजामत में उच्च कोटि के होला ओहके डड़कटवा (खेत का मेड़ काट कर खेत बढाने की नाजायज चेष्टा रखने वाला व्यक्ति )के नाम से जानल जाला .. डड़कटवा हर गांव में लगभग हर घर में पावल जाले , डड़कटवा किस्म के लोग कई पुहुत (पुश्त) तक एह कला के बिसरे ना देलन , कारण इ होला की उनकर उत्थान -पतन ओही एक फीट जमीन में फंसल रहेला , डड़कटवा लोग एह कला के सहेज (संरक्षित ) करे में सगरो जिनिगी खपा देलें आ आवे वाली अपनी अगली पीढ़ी के भी जाने अनजाने में सीखा देबेलें , डड़कटवा के डाड़ (खेत का मेड़) काट के जेवन विजय के अनुभूति होखे ले , ठीक ओइसने जेइसन पढ़ाकू लइका के केवनो परीक्षा के परिणाम आवे पर पास होइला पर खुशी होखे ले | कुल मिला के जीवन भर डाड़ काट के ओह व्यक्ति की नीचता के संजीवनी मिलेले आ ओकर आत्मा तृप्त हो जाले बाकी ओके भ्रम रहेला की खेत बढ़ गईल , काहे की ,एकगो कहाउत कहल जाले की...
सुच्चा बनारसी
कुछ दिन बनारस क्या रहे ,खुद को बनारसी समझने लगे,
जहां तहां आत्म विश्वास से लबरेज , घूमने टहलने लगे ,
मंदिर ,घाट हो सड़क हर जगह बनारसी होने का दम्भ भरने लगे ,
न वो सरदार रहे न सरदारी ,पर जहां खुला देखे लंगोटा कस दंड मारने लगे ,
प्रणाम -नमस्ते औ राम -राम तज, अभिवादन श्रेष्ठ महादेव कहने लगे ,
गंगा में डुबकी लगाकर हर हर गंगे कह दूर तक तरने लगे ,
लस्सी ,मलाई ,ठंडई ,मलईयो छके और मुंह में पान धरने लगे ,
बोली -आचार , व्यवहार और आहर में बनारसी वरण करने लगे ,
महाश्मशान की भभूत और माथे पर तिलक का श्रृंगार करने लगा ,
हमारा बनारस और खुद को घनीभूत बनारसी समझने लगे,
पर एक दिन संयोग हुआ घनघोर बनारसी से , जल ढारने में वाद करने लगा ,
मैं भी खुद को बनारसी बता आगे बढ़ने लगा ,
उसने बात की और बात - बात में बात पकड़ने लगा , मैं बनावटी बनारसीपने से अकड़ने लगा ,
उसने मेरी सारी अकड़ निकाल दी और महादेव पर पहला अपना अधिकार कहने लगा ,
मुझे ज्ञान मिलने लगा ,बनारस का होना और बनारसी दोनो अलग लगने लगा ,
वो गुरु निकला ,मेरा तो बस गुरुर था ,
तन से बलशाली और मन से स्थिर था ,
वो बनारसी अहीर था ||
हर-हर महादेव 🙏
ReplyDeleteबनारसी बनने का गुरूर ही कुछ और है
ReplyDeleteबनारसी पान और बनार्स
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